Panchayati Raj System Panchayat in Independent India in Hindi

धटंटयती राज व्यवस्था: स्वतंत्र भारत में पंचायत

भारत गाँवों का देश है और पंचायती राज व्यवस्था गाँवों को चलाने का एक व्यवस्थित और प्रामाणिक स्थानीय स्व-शासन व्यवस्था है,

इस लेख में हम पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj System) पर सरल और सहट्ंे करेंगे और इसके सेी में्ण्ण पहलुं्ं को सॿंें्ं

आसीलिद लेख कोत धॕंम पढ़ेत, संक्षिप्त में आपको पंचॾयूी मास व्यव्पॾमॾ से सं६ंपॿत बॹुत्तॾ।ॾतॾ।ॾत्तॾतॾत | panchayati raj system

वूची विषय

  • धंचायूमी राज व्यवस्था की पृष्ठभूमि
  • पंचायती राज व्यवस्था का विकास

o नलवंत राय मेहता समितक

o अशोक मेहता समिति

o~जी.वी.के.ाव समिति

o एल.एम. सिंघवी समिति

o धुंगन समिति

o गाडगिल समिति

  • पऍजचायती राज व्यवस्था का संवैधानिकर

o 73वऍं संविधान संशोधन अधिनियम 1992

o 73वऍं संविधान संशोधन अधिनियम का महत्व

o1. अनिवार्य प्रावधान (Required clause)

o 2. Optional provision: स्वैच्छिक प्रावधान

  • 73वऍं संविधान संशोधन अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ
  • पंचायतों की शक्तियाँ एवं जिम्मेदारियाँ

o धূच्यती राज के वित्तीय स्रोत

पाज व्यवस्था की समस्या

o पंचायती माज व्यवस्था के साम৮े ञुमौतियाव

  • हासन संबंधी अन्य लेख
    पंचायती राज व्यवस्था की पृष्ठभूमि | panchayati raj system

 भारत में पंचायत या ग्राम कोई नई अवधारणा या कोई नई व्यवस्था नहीं है बल्कि इसके प्रमाण वैदिक युग से मिलने शुरू हो जाते हैं। जहां कई वैदिक ग्रन्थों में पंचायतन शब्द का उल्लेख मिलता है। हालांकि उस समय ये पाँच आध्यात्मिक लोगों का समूह हुआ करता था। फिर महाभारत और रामायण जैसे धर्मग्रंथों की बात करें तो वहाँ भी ग्राम या जनपद के साक्ष्य मिलते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ग्राम पंचायतों का उल्लेख मिलता है। सल्तनत काल के दौरान भी दिल्ली के सुल्तानों ने अपने राज्य को प्रान्तों में विभाजित किया था। जिसे कि वे विलायत कहते थे। फिर ब्रिटिश काल की बात करें तो शुरुआती दौर में तो ग्राम पंचायतों को कमजोर करने की कोशिश की गई लेकिन 1870 के मेयो प्रस्ताव ने स्थानीय संस्थाओं को मजबूत करने की कोशिश की। इसी को आगे बढ़ाते हुए 1882 में लॉर्ड रिपन ने इन स्थानीय संस्थाओं को जरूरी लोकतांत्रिक ढांचा प्रदान किया। इसीलिए लाॅर्ड रिपन भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। इसके बाद उतरोत्तर क्षेत्रीयता को बढ़ावा ही मिला और बहुत सारी शक्तियों को प्रान्तों में स्थानांतरित किया गया। स्वतंत्रता के पश्चात अनुच्छेद 40 में DPSP के तहत पंचायतों का उल्लेख भी किया गया। पर ये एक अनौपचारिक व्यवस्था ही बना रहा। इसे कभी भी संवैधानिक सपोर्ट देने की कोशिश नहीं की गई। भारत के स्वतंत्र होने के लगभग 45 साल बाद पंचायती राज व्यवस्था को ”73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992” के माध्यम से एक संवैधानिक दर्जा दिया गया। हम भारत में पंचायती राज के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को पहले ही समझ चुके हैं। इस लेख में हम पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद की स्थिति, महत्वपूर्ण प्रावधानों, लाभों और कुछ त्रुटियों आदि की चर्चा करेंगे।
पाटटयती राज व्यवस्था का विकास | panchayati raj system

भारत में पंचাयতी मास शब्द का अािप्मাय क्रাमीम म्थাमीम म्धাमीम म्सিमॾमॾ मॾसॾतॾतॾ मॾतॾतॾतॾतॾतॾतॾतॾ यह भामत के सभी माम्योत में, ममीनी स्तर पर लोकतं्र के निम्ण हेतु विमॾय विध्सय़ं क्वारा स्तॾतॾतॾतॾतॾतॾत सत्तॾ के विकेम्पीमॾण की दिमा में ये सबसे महत्वू्ण कदम है। इस व्यवस्था मे कॾरामीण विकास की दिमा औम दशमम मॕम मॕहमॾपा मॾ पट पॲल पर स्वतंत्म भारत में इमकी मुरुआत कुट अच्छी नहीत मही टेरों समितियां बनायी गई, हजारों सिफ़ारिमें की गै। मैसे मिबलवंत राय मेहता समिति | panchayati raj system

इसने नवम्बर 1957 को अपनी रिपोर्ट सौंपी और लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की योजना की सिफ़ारिश की। इसकी जो सबसे महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें है, वो हैं (1) तीन स्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना – यानी कि गाँव स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद। (2) ग्राम पंचायत की स्थापना प्रत्यक्ष रूप से चुने प्रतिनिधियों द्वारा होना चाहिए, जबकि पंचायत समिति और जिला परिषद का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने सदस्यों द्वारा होनी चाहिए, आदि। |panchayati raj system

समिति की इन सिफ़ारिशों को राष्ट्रीय विकास परिदद द्वारा जनवरी, 1958 में स्वीकार किया गाा।. लेकिन परिषद ने कोई एक निश्चित फ़ारमैट तैयार नहीं किया और इसे राज्यों पर छोड़ दिया कि वे जिस तरह से इसे चाहे लागू करें। इससे हुऊ पे कि पंचायती माज व्यवस्था में कोई एॕंॾधॾ महीं आ पायी।

अशोक मेहता समिति दिसम्बर 1977 में, जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता की अध्यक्षता में पंचायती राज संस्थाओं पर एक समिति का गठन किया। 1978 में अपनी सौंपी। इनकी मुख्य सिफ़ारिशें कुछ इस प्रकार थी (1) त्रिस्तीय पंचायूी राज पद्धति को द्विस्ाीय पॿं्ं्त्त्त्त्त्त जिला स्तर परिषद, और उससे नीचे मण्डल पंचायत (जिसमें 15 हज़ार से 20 हज़ार जनंं्या वाले गाँव के हॿलाद. (2) नियोजन एवं विकास की उचित इकाई जिला को माना और अपने आर्थिक स्रोतों के लिए पंचायती राज संस्थाओं के पास कर लगाने की अनिवार्य शक्ति की बात की, और सबसे महत्वपूर्ण (3) पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिए। इससे अम्हे अमणुम्त हैसियत के साथ ही मतत सक्मिपतॾ का आम्वाम॰म२

उस समय की जनता पार्टी सरकार के भंग होने के कारण, केन्द्रीय स्तर पर अशोक मेहता समिति की सिफ़ारिशें नजरंदाज कर दी गई। फिर भी तीन राज्य कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश ने अशोक मेहता समिति की सिफ़ारिशों को ध्यान में रखकर पंचायती राज संस्थाओं के पुनरुद्धार के लिए कुछ कदम उठाए। |panchayati raj system

जी.वी.के. राव समिति

ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की समीक्षा करने के लिए योजना आयोग द्वारा 1985 में जी. वी. के. राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इन्होने भी अपनी सिफ़ारिश में नियोजन एवं विकास की उचित इकाई जिला को माना और जिला परिषद को विकास कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए मुख्य निकाय बनाए जाने की सिफ़ारिश की।

एल.एम. सिंघवी समिति 1986 में राजीव गांधी सरकार ने लोकतंत्र व विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं का पुनरुद्धार पर एक अवधारणा पत्र तैयार करने के लिए एक समिति का गठन एल. एम. सिंघवी की अध्यक्षता में किया।

इन्होने सबसे मुख्य बात पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक रूप से मान्यता देने की करी एवं इसने पंचायती राज विकास के नियमित स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव करने के संवैधानिक उपबंध बनाने की सलाह भी दी।

थुंगन समिति 1988 में, संसद की सलाहकार समिति की एक उप समिति पी. के. थुंगन की अध्यक्षता में राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे की जांच करने के उद्देश्य से गठित की गई। इम्होमे भी पंचायती माम्य संस्थাटू को संवैधাमॿक माम्यतॾ को बात कॹीॸ साथ ही गाँव, प्रखंय तथा जिला स्तरों पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज कोस कोस्त आदि।

गाडगिल समितिह 1988 में वी. एन. गाडगिल की अध्यक्षता में एक नीति एंव किंॾमॾमम समिति का गठन काँि्मेस पें्ंॿति इस समिति से इस म्रश्न पर लिए कहा गया कि पंचायंी राज संं्पां (Panchayati Raj System) को प्रभावी कैसे बनायााााााााातातातात इस समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में वहीं बातें दोहराई जैसे कि- 1. पंचायती राज संस्पॿं को संवेनिक द््र्टॾत | panchayati raj system

  1. गाँव, प्रखंड तथा जिला स्तर पर त्रि- स्तरीय पंचायती राज होसालद।
  2. पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल पाँच वर्ष सुनिं्तीत कर दिया माए माएात्त्त.

अंततस काडगिह समिति की ये अमुमंमाएव एक संमोध८ विधेमम के मिर्मॾमॿ के मिर्मामॾ कॾ आधार बमी। और पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj System) को संवैधानिक दर्जा तथा सुर्षा देने केने की कवायद शुं्त्त्त्त्त्त्त्त्त्त्तत

पंचायती राज व्यवस्था का संवैधानिकरण राजीव गांधी ने अपने शासन काल में लोकसभा से इसे पारित करवा लिए पर राज्यसभा से पारित नहीं हो सका और इसके बाद जब वी.पी. सिंह की सरकार आई तो इन्होने भी इसे लाने की कोशिश की लेकिन इनकी सरकार ही गिर गई।

अंततः नरसिम्हा राव सरकार के प्रधानमंत्रित्व में काँग्रेस सरकार ने एक बार फिर पंचायती राज के संवैधानिकरण के मामले पर विचार किया। इसने पहले के विवादास्पद प्रावधानों को हटाकर नया प्रस्ताव रखा और सितंबर 1991 को लोकसभा में एक संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। 73वें संविधानन संशोधन अधिनियम 1992 के रूप में पारित हहआ और 24 अ्रैल 1993 को प्रभाव में हहतॾतॾतॾतॾतॾतॾतॾतॾतॾत्तेंत

73वऍं संविधान संशोधन अधिनियम 1992

इस अधिनियम ने भारत के संविधान में ‘पंचायतें’ नामक एक नया खंड 9 सम्मिलित किया।. 243 से 243(O) के प्रावधान सम्मिलित किए गए। इस अधिनियम ने संविधान में एक नई 11वीं अनुसूची भी जोड़ी। इस सूची में पंचायतों की 29 कार्यकारी विषय-वस्तु↗️ है जिसे कि अनुच्छेद 243 (G) के तहत पंचायतों की शक्तियाँ, प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व के रूप में शामिल किया गया है।

73वऍं संविधान संशोधन अधिनियम का महत्व

आखिरकार इस अधिनियम ने संविधान के 40वें अनुच्छेद (जो कि डीपीएमी का एक हिस्मा है) को एक व्याविक रूप इस अधिनियम ने पंचायती राज संस्थाओं को एक संवैधानिक दर्जा दिया जिसे अपनाने के लिए राज्य सरकारे संवैधानिक रूप से बाध्य है।

इस अधिनियम के उपबंधों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है – अमिव्य (required) और स्वैच्छिम (optional)।

अधिनियम के अनिवार्य हिस्से को पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj System) के गठन के लिए राज्य के कानून में शामिल किया जाना आवश्यक है। अूसरे भाग के स्वैच्छिक उपबंधों को राज्यों के मॾव-विवेकाुमॾम सम्मॿलित किया मातॾ मातॾ मातॾ मॾतॾतॾतॾ

  1. अनिवार्य प्रावधान (Required clause)

(1) एक गाँव या गाँव के समूह में ग्राम सभा काा का कााम साा काा का

(2) गाँव स्तर पर, माध्यमिक स्तर एवं जिला स्तर पर पंंायतों की करतापमा

(3) माध्यमिक और जिला स्तर के प्रमुखों के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव (4) पंचायतों में चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होनी चाहिए (5) सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति एवं जनजतियों के लिए आरक्षण सभी स्तरों पर एक-तिहाई पद महिला के लिए आरक्षित

(6) पंचायतों के साथ ही मध्यवर्ती एवं जिला निकायों का कार्यकाल पाँच वर्ष होंी चाहिए

(7) पंचायती राज संस्थाओं में चुनाव कराने के लिए राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापातॾ

(9) पंचायतों की वित्तीय स्थिति का समीक्षा करने के लिए प्रत्येक पाँच वर्ष बाद एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना की जानी चाहिए।

  1. स्वैच्छिक प्रावधान (Optional provision) (1) विधानसभाओं एवं संसदीय निर्वाचन क्षेत्र विशेष के अंतर्गत आने वाली सभी पंचायती राज संस्थाओं में संसद और विधानमंडल के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना।

(2) पंचायत के किसी भी स्तर पर पिछड़े वर्ग के लिए स्थानों का आरक्षण (3) पंचायतें स्थानीय सरकार के रूप में कार्य कर सकें, इस हेतु उन्हे अधिकार एवं शक्तियाँ देना

(4) पंचायतों को सामाजिक न्याय एवं आर्थिक निकाय के लिए योजनाएँ तैयार करने के लिए शक्तियों और दायित्वों का प्रत्यायन और संविधान की 11वीं अनुसूची के 29 प्रकार्यात्मक, में से सभी अथवा कुछ को सम्पन्न करना (5) पंचायतों को वित्तीय अधिकार देना, अर्थात उन्हे उचित कर, पथकर और शुल्क आदि के आरोपण और संग्रहण के लिए प्राधिकृत करना। आदि। | panchayati raj system

पংচাযতी मাस व्णवট्थम कम वিकাमতी में पংচাপी ममस मম्दॾमॾ क्मামीण म्धাमीम म्मাमॾमॾमॾतॾतॾतॾतॾतॾतॾतॾत यह भामत के सभी माम्योत में, ममीनी स्तर पर लोकतं्र के निम्ण हेतु विमॾय विध्सय़ं क्वारा स्तॾतॾतॾतॾतॾतॾत सत्तॾ के विकेम्पीमॾण की दिमा में ये सबसे महत्वू्ण कदम है। इस व्यवस्था मे कॾरामीण विकास की दिमा औम दशमम मॕम मॕहमॾपा मॾ पट पॲल पर स्वतंत्म भारत में इमकी मुरुआत कुट अच्छी नहीत मही टेरों समितियां बनायी गई, हजारों सिफ़ारिमें की गै। जैसे कि बलवंत राय मेहता समिति इसने नवम्बर 1957 को अपनी रिपोर्ट सौंपी और लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की योजना की सिफ़ारिश की। इसकी जो सबसे महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें है, वो हैं (1) तीन स्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना – यानी कि गाँव स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद। (2) ग्राम पंचायत की स्थापना प्रत्यक्ष रूप से चुने प्रतिनिधियों द्वारा होना चाहिए, जबकि पंचायत समिति और जिला परिषद का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने सदस्यों द्वारा होनी चाहिए, आदि। | panchayati raj system

समिति की इन सिफ़ारिशों को राष्ट्रीय विकास परिदद द्वारा जनवरी, 1958 में स्वीकार किया गाा।. लेकिन परिषद ने कोई एक निश्चित फ़ारमैट तैयार नहीं किया और इसे राज्यों पर छोड़ दिया कि वे जिस तरह से इसे चाहे लागू करें। इससे हुऊ पे कि पंचायती माज व्यवस्था में कोई एॕंॾधॾ महीं आ पायी।

अशोक मेहता समिति दिसम्बर 1977 में, जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता की अध्यक्षता में पंचायती राज संस्थाओं पर एक समिति का गठन किया। 1978 में अपनी सौंपी। इनकी मुख्य सिफ़ारिशें कुछ इस प्रकार थी (1) त्रिस्तीय पंचायूी राज पद्धति को द्विस्ाीय पॿं्ं्त्त्त्त्त्त जिला स्तर पर जिला परिषद, और उससे नीचे मण्डल पंचायत (जिसमें 15 हज़ार से 20 हज़ार जनसंख्या वाले गाँव के समूह होने चाहिए) (2) नियोजन एवं विकास की उचित इकाई जिला को माना और अपने आर्थिक स्रोतों के लिए पंचायती राज संस्थाओं के पास कर लगाने की अनिवार्य शक्ति की बात की, और सबसे महत्वपूर्ण (3) पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिए। इससे अम्हे अमणुम्त हैसियत के साथ ही मतत सक्मिपतॾ का आम्वाम॰म२

उस समय की जनता पार्टी सरकार के भंग होने के कारण, केन्द्रीय स्तर पर अशोक मेहता समिति की सिफ़ारिशें नजरंदाज कर दी गई। फिर भी तीन राज्य कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश ने अशोक मेहता समिति की सिफ़ारिशों को ध्यान में रखकर पंचायती राज संस्थाओं के पुनरुद्धार के लिए कुछ कदम उठाए। | panchayati raj system

जी.वी.के. राव समिति

ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की समीक्षा करने के लिए योजना आयोग द्वारा 1985 में जी. वी. के. राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इन्होने भी अपनी सिफ़ारिश में नियोजन एवं विकास की उचित इकाई जिला को माना और जिला परिषद को विकास कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए मुख्य निकाय बनाए जाने की सिफ़ारिश की।

एल.एम. सिंघवी समिति

1986 में राजीव गांधी सरकार ने लोकतंत्र व विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं का पुनरुद्धार पर एक अवधारणा पत्र तैयार करने के लिए एक समिति का गठन एल. एम. सिंघवी की अध्यक्षता में किया।

इन्होने सबसे मुख्य बात पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक रूप से मान्यता देने की करी एवं इसने पंचायती राज विकास के नियमित स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव करने के संवैधानिक उपबंध बनाने की सलाह भी दी।

थुंगन समिति 1988 में, संसद की सलाहकार समिति की एक उप समिति पी. के. थुंगन की अध्यक्षता में राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे की जांच करने के उद्देश्य से गठित की गई। इम्होमे भी पंचायती माम्य संस्थাटू को संवैधাमॿक माम्यतॾ को बात कॹीॸ साथ ही गाँव, प्रखंय तथा जिला स्तरों पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज कोस कोस्त आदि।

गाडगिल समितिह 1988 में वी. एन. गाडगिल की अध्यक्षता में एक नीति एंव किंॾमॾमम समिति का गठन काँि्मेस पें्ंॿति इस समिति से इस म्रश्न पर लिए कहा गया कि पंचायंी राज संं्पां (Panchayati Raj System) को प्रभावी कैसे बनायााााााााातातातात इस समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में वहीं बातें दोहराई जैसे कि- 1. पंचायती राज संस्पॿं को संवेनिक द््र्टॾत

  1. गाँव, प्रखंड तथा जिला स्तर पर त्रि- स्तरीय पंचायती राज होसालद।
  2. पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल पाँच वर्ष सुनिं्तीत कर दिया माए माएात्त्त.

अंततस काडगिह समिति की ये अमुमंमाएव एक संमोध८ विधेमम के मिर्मॾमॿ के मिर्मामॾ कॾ आधार बमी।

73वऍं संविधान संशोधन अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं

आस अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषताएव निम्नलरत है:
ग्राम सभा: अनुच्छेद 243(A) पंचायती राज के ग्राम सभा काटमम काा काटासाम काता है। पह पंचायत क्षेत्म में पंमीकॼत मतदात৾ओत की एक कॾरारत कोतॾ।ॾम। की कम क्रामस स्तॾीय मॾा है। पह अम मम्तियोत कम पॾমাोक कमইকी कम औमे माমॾम मॹ है मो मॾমॾय के मॿত৾मॾतॾह कॾ঵াাाॾत मिएाात किकॾतॾतॾतॾता

त्रिस्तरीय प्रणाली: अनुच्छेद 243(C) सभी राज्यों के लिए त्रिस्तरीय प्रणाली का प्रावधान करता है, अर्थात ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, माध्यमिक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद। अत: यह अधिनियम पूरे देम में पंचायत राज की मंरचना में ममंूमा हें ममटूमा हिता है। फिर भी, ऐसा राज्य जिसकी जनसंख्या 20 लाख से ऊपर न हो, को माध्यमिक स्तर पर पंचायतें की गठन न करने की।.

सदस्यों एवं अध्यक्ष का चुनाव: अनुच्छेद 243(K) के तहत गाँव, माध्यमिक तथा जिला स्तर पर पंचायतों के सभी सदस्य लोगों द्वारा सीधे चुने जाएँगे। जबकि माध्यमिक स्तर पर प्रमुख का चुनाव पंचायत समिति अप्रत्यक्ष रूप से करेंगे, इसी प्रकार जिला स्तर पर जिला परिषद के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से जीते हुए जिला परिषद के सदस्य करते हैं। म৬कि का़व स्तम पम पंचामत के अध्यक्ष का ञुमाव मे मॾमॾह के विध৾मतॾह पাवাमा मিमॾतॾत धরीकॾरॾत सॾूॾतॾतॾ

सीटों का आरक्षण: अनुच्छेद 243(D) के तहत यह अधिनियम प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जाति एवं जनजाति को उनकी संख्या के कुल जनसख्या के अनुपात में सीटों पर आरक्षण उपलब्ध कराता है। राज्य विधानमंडल गाँव या अन्य स्तर पर पंचायतों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए अध्यक्ष के पद के लिए आरक्षण भी प्रदान करेगा।

इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई है की आरक्षण के मसले पर महिलाओं के लिए उपलब्ध कुल सीटों की संख्या एक तिहाई से कम न हो। ऌসকे अतिमिक्त पंচাपय़ोत में अध्णম्श व अম्य प४ों मे हिए ह॰ महिहॾं के हिए आरক्षम कॶ पिणाॾत कॿतॾतॾतॾतॾतत

यह अधिनियम विधानमंडल को इसके लिए अधिकृत करता है की वह पंचायत अध्यक्ष के कार्यालय में पिछड़े वर्गों के लिए किसी भी स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था करें।

पंचायतों का कार्यकाल: अनुच्छेद 243 (E) के तहत यह अधिनियम सभी स्तरों पर पंचायतों का कार्यकाल पाँच वर्ष के लिए निश्चित करता है। तथापि, समय पूरा होने से पूर्व भी उसे विघटित किया मा मी सॕधा मा समता है। इसके बाद पंचायत गदन के लिए ञुनाव होंगे 1 इसकी 5 वर्ष की अवधि खत्म होने से पूर्व या 2 विघटित होने की दशा में इसके विघटित होने की तिथि से 6 माह खत्म होने की अवधि के अंदर।

पमंतु महां शेष अवधि मह माह मे कम है, वहाँ इस अवधॿ के हिए नई पंफात का ञुनास पॿ ञुमास महॾरस पॹॾासॾतॾतॾतॾ

यहाँ यह ध्यान रखने की जरूरत है कि एक भंग पंचायत के स्थान पर गठित पंचायत जो भंग पंचायत की शेष अवधि के लिए गठित की गई है। मह भंग पंचायत की मेष अवधि धश ही कार्यरत रहे़ी।

दूसरे शब्दों में, एक पंचायत जो समय-पूर्व भंग होने पर पुनर्गठित हुई है, वह पूरे पाँच वर्ष की निर्धारित अवधि तक कार्यरत नहीं होती, बल्कि केवल बचे हुए समय के लिए ही कार्यरत होती है।

Disqualifications (अनर्हताएँ): 243 (F) के तहत कोई भी व्यक्ति पंचायत का सदस्य नहीं बन पिएगा यदि वह निक्न प्रक्र से अहत्ल्र से धहत कोत्तेते

  1. राज्य विधानमंडल के लिए निर्वाचित होने के उद्देश्य से संबन्धित राज्य मे उस समय प्रभावी कानून के अंतर्गत, अथवा 2. राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी अन्य कानून के अंतर्गत।

हालांकि किसी भी व्यक्ति को इस बात पर अयोग्य घोषित नहीं किया जाएगा कि वे 25 वर्ष से कम आयु का है, यदि वह 21 वर्ष की आयु पूरा कर चुका है तो वह योग्य माना जाएगा। अयोग्यता संमम्धित सॾी पॾमश्न, राम्य विधान द्वॾमॾत मिर्धिसॿत प्रॾधिमॾय़ी को संदर्भित.

The State election commission (SEC): राज्य में निर्वाचन प्रक्रिया की निगरानी, मार्गदर्शन, नियंत्रण और मतदाता सूची तैयार करने के लिए एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग की स्थापना की जाएगी। आसমें माम्णपाल द्वাमा निणुक्त राम्य ञुमাह आयुक्त सॿमॾहत है।

अमकी सेवा, शर्तें और पदावधि भी राज्यपाल द्वामा निम्धात की माक्तासॿत इसे राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायधीश का हटाने के लिए निर्धारित तरीके के अलावा अन्य किसी तरीके से नहीं हटाया जायगा। अमকी मिযुम्तॿ मे माद अ८টों मे ऐमा कोई पमिवা।ॾ महोूॾ महोूॾ महोू मिया माणॾकॾ मिमॾॾॾमॾ मॿकॾ।ॾ।ॾ मॿकॾ।ॾ

पংञাयতोत के ञुनাव सূमम्धিत सॾी मাमলोत पम मामॾय मিधাम।ॾह कोई भी अॕरसॾतॾत

वित्त (Finance) के मामले में राज्य विधानमंडल – (1) पंचायत को उपयुक्त कर, चुंगी, शुल्क लगाने और उनके संग्रहण के लिए प्राधिकृत कर सकता है।

(2) राज्य सरकार द्वारा आरोपित (Charged) और संगृहीत टैकस, टुं्ग मैक्स और शुल्क पूंायतों को सोंप सॿता है।

(3) राज्य की समेकित निधि से पंचायतों को अनुदान सहयतॾ देने के लिए उपांन कर सकता है। आदि।

वित्त आयोग (Finance Commission): अनुच्छेद 243 (I) के तहत राज्य का राज्यपाल प्रत्येक 5 वर्ष के पश्चात पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए वित्त आयोग का गठन करेगा। यह आयोग राज्यपाल की निम्न सिफ़ारिशें करेगा: (1) राज्य सरकार द्वारा लगाए गए कुल टैक्सों, चुंगी, मार्ग कर एवं एकत्रित शुल्कों का राज्य और पंचायतों के मध्य बंटवारा कैसे हो, (2) पंचायतों को सौंपे गए करो, चुंगी, मांगकर और शुल्कों का निर्धारण,

(3) राज्य की समेकित निधि कोष से पंचायतों को दी जाने वाली अनुदान सहायता, इसके अलावा आयोग पंचायतों को वित्तीय स्थिति के सुधार के लिए आवश्यक उपाय भी सुझाता है, और राज्यपाल द्वारा आयोग को सौंपे गए अन्य कामों को भी करता है।

वित्त आयोग की बनावट, इसके सदस्यों को आवश्यक अर्हता तथा उनके चुनने के तरीके को राज्य विधानमंडल निर्धारित कर सकता है।

केन्द्रीय वित्त आयोग (Central Finance Commission) भी राज्य में पंचायतों के पूरक स्रोतों में वृद्धि के लिए राज्य को समेकित विधि आवश्यक उपायों के बारे में सलाह देगा। (राज्प वित्त आयोग द्वारा दी गई सिफ़ारिमोत के आधार पर)

लेखा परीक्षण: अनुच्छेद 243 (J) के तहत राज्य विधानमण्डल पंचायतों के खातों की देखरेख और उनके परीक्षण के लिए प्रावधान बना सकता है। चाहे तो विधानमंडल इसके लिए एक अलग लेखा परीक्षक संगठन बना सकता है या फिर उस राज्य के महालेखाकारों को ये काम सौंपा जा सकता है।

RTI Act of 2005 केंांटटं्मीसेक्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्त्त्त्स्स्स्त्त्त्त्त्त्त्त्त्त्ं्ं्ं्ं्ं्ं्ं्त्त्

संघ राज्य क्षेत्रों पर लागू होना: अनुच्छेद 243 (L) के तहत भारत का राष्ट्रपति किसी भी संघ राज्यक्षेत्र में इस भाग के उपबंध को अपवादों अथवा संशोधनों के साथ लागू करने के लिए निर्देश दे सकता है।

छूट प्राप्त राज्य व क्षेत्र: पह कानून मागाॹॉंय, मेघाहय, मिज़ोरम और कुछ अम्य विमेष क्षेत्रों पर हागू नहीं इन क्षेत्रों के अंतर्गत (1) उन राज्यों के अनुसूचित आदिवासी क्षेत्रों में (2) मणिपुर के उन पहाड़ी क्षेत्रों में जहां जिला परिषद अस्तित्व में हो (3) पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग जिला जहां पर ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद’ अस्तित्व में है। हालांकि संसद चाहे तो इस अधिनियम को ऐसे अपवादों और संशोधनों के साथ अनुसूचित क्षेत्रों एवं जनजाति क्षेत्रों में लागू कर सकती है, जो वह उचित समझें।

चुनावी मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप पर रोक – यह अधिनियम पंचायत के चुनावी मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप पर रोक लगाता है। इसमें कहा गया है कि निर्वाचन क्षेत्र और इन निर्वाचन क्षेत्र में सीटों के आवंटन संबंधी मुद्दों को न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया जा सकता। इसमें यह भी कहा गया है कि किसी भी पंचायात के चुनावों को राज्य विधानमंडल द्वारा निर्धारित प्राधिकारी अथवा तरीके के अलावा चुनौती नहीं दी जाएगी।

पंचायतों की शक्तियाँ एवं जिम्मेदारियाँ

 संविधान की 11वीं अनुसूची में 29 विषयों का उल्लेख तो किया गया है परंतु संविधान में यह स्पष्ट नहीं है कि पंचायतों को इनमें से कौन से कार्य और जिम्मेदारियाँ सौंपना अनिवार्य है। इन बातों के निर्धारण का काम, राज्यों के विधानमंडल को सौंप दिया गया है। तो कुल मिलाकर राज्य विधानमंडल पंचायतों को आवश्यकतानुसार ऐसी शक्तियाँ और अधिकार दे सकता है, जिससे कि वह स्व-शासन संस्थाओं के रूप में कार्य करने में सक्षम हो। जैसे की, राज्य विधानमंडल – (1) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के कार्यक्रमों को तैयार करने और उसे क्रियान्वित करने से सबन्धित शक्ति पंचायतों को दे सकता है, या (2) 11वीं अनुसूची के 29 मामलों से भी किसी प्रावधान के तहत शक्तियाँ दे सकती है। संविधान का निर्देश है पंचायतों को ऐसी शक्तियों एवं प्राधिकारों से सम्पन्न होना चाहिए जो स्व-शासन को सुदृढ़ और सक्षम बना

पंचायती राज के वित्तीय स्रोत

 साधारणतः हमारे देश में पंचायतें निम्नलिखित तरीकों में राजस्व एकत्र करती है: (1) संविधान की धारा 280 के आधार पर केंद्रीय वित्त आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार केंद्र सरकार से प्राप्त अनुदान। (2) संविधान धारा 243 (I) के अनुसार राज्य वित्त आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान। (3) राज्य सरकार से प्राप्त कर्ज अनुदान (4) केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं तथा अतिरिक्त केंद्रीय मदद के नाम पर कार्यक्रम केन्द्रित आवंटन (5) आंतरिक (स्थानीय स्तर) पर संसाधन निर्माण ? तो अब तक हमने पंचायती राज व्यवस्था के विशेषताओं, प्रावधानो आदि को समझा। आज ये व्यवस्था फल-फूल रहा है पर साथ ही ये कई समस्याओं और चुनौतियों से भी जूझ रहा है। वो क्या है आइये उसे देखते हैं –

पंचायती राज व्यवस्था की समस्या

ऐसा नहीं है कि सभी
राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था समस्याओं से जूझ रहा है। केरल, कर्नाटक एवं तमिलनाडु जैसे
राज्यों में पंचायतों की स्थिति देशभर में सबसे अच्छी मानी जाती है। लेकिन
ज़्यादातर राज्यों की बात करें तो वहाँ पंचायतों के सशक्तिकरण पर पर्याप्त ध्यान
नहीं दिया गया है।

इसके कारण है (1) पंचायतों के अपने संसाधन अत्यल्प
है तथा वे आंतरिक संसाधन जुटाने में कमजोर है। (2) पंचायतें अनुदान के लिए केंद्र तथा राज्य सरकारों पर
अत्यधिक निर्भर है, उसका भी ज्यादा भाग
किसी न किसी योजना केन्द्रित होता है इसीलिए व्यय करने के लिए ज्यादा कुछ बचता है
नहीं, (3) 11वीं अनुसूची के
ज़्यादातर विषयों जैसे कि प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, जलापूर्ति, स्वच्छता
तथा लघु सिंचाई आदि से संबन्धित योजनाओं को ज़्यादातर केंद्र सरकार या राज्य सरकार
ही संभालती है, तो कुल मिलाकर स्थिति यह है की
पंचायतों के पास ज़िम्मेदारी बहुत है पर संसाधन बेहद कम।

पंचायती राज व्यवस्था के सामने चुनौतियाँ

 73वें संविधान संशोधन के जरिये संवैधानिक स्थिति तथा सुरक्षा प्रदान करने के बावजूद पंचायती राज संस्थाओं का काम संतोषजनक और आशानुकूल नहीं रहा। इसकी निम्नलिखित वजहें है – पर्याप्त वित्त हस्तांतरण का अभाव : कुछ राज्यों को छोड़ दे तो अधिकतर राज्य वित्त आयोग द्वारा सुझाए गए फ़ंड पंचायती राज व्यवस्था को उपलब्ध नहीं करवा पाते हैं। पंचायत समिति जैसे पद के लिए तो मुश्किल से अपने पूरे कार्यकाल के दौरान एक-दो अच्छे काम करने को मिलते है। सरकारी निधि पर अत्यधिक निर्भरता : पंचायतें आमतौर पर सरकारी निधि व्यवस्था पर निर्भर होती है। क्योंकि पंचायतों को खुद आय प्राप्त करने के लिए बहुत ही कम विकल्प दिये जाते है, या फिर दिये ही नहीं जाते हैं। वैसे संविधान ने पंचायतों को कुछ मामलों में कर लगाने की शक्ति दी है पर बहुत कम ही पंचायतें कर लगाने तथा वसूलने के अपने वित्तीय अधिकारों का प्रयोग करती हैं। क्योंकि अक्सर जिन लोगों के बीच रहते हैं उनसे कर वसूलना मुश्किल होता है। ग्राम सभा की स्थिति : संविधान में ग्राम सभा की भूमिका को प्रमुखता से बताया गया है पर कई राज्यों ने ग्राम सभाओं के अधिकारों को स्पष्ट ही नहीं किया हैं। स्थिति तो ये है कि कई ग्राम पंचायतों को तो ये भी पता नहीं है कि ग्राम सभा नाम की भी कोई चीज़ होती है। कमजोर संरचना: देश केअनेकों ग्राम पंचायतों में पूर्णकालिक सचिव नहीं होते। उससे भी बड़ी बात की लगभग 25% ग्राम पंचायतों के पास अपने कार्यालय भवन या पंचायत भवन तक नहीं होते। इसके अलावा इसके पास तथ्यों, आंकड़ों आदि को सहेज कर रखने की व्यवस्था नहीं होती। भ्रष्टाचार और नौकरशाही की अनावश्यक हस्तक्षेप: ब्लॉक या पंचायतों के स्तर पर आमतौर पर भ्रष्टाचार संबंधी कोई ऑडिट नहीं होती इसीलिए यहाँ भ्रष्टाचार अपने उच्च स्तर पर होता है, इसके अलावा अधिकारी किसी योजना को तभी स्वीकृति देते हैं जब उसे कुछ कमीशन मिलता है। अधिकांश पंचायती राज संस्थाओं के अधिकतर सदस्य अर्द्ध-शिक्षित होते है और उचित प्रशिक्षण के अभाव में ये अपनी भूमिका, जिम्मेदारी, कार्यप्रणाली तथा व्यवस्था के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं।

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