Rural Development, Public Awareness and the Role of Media in Hindi

प्रस्तावना

 आजाद भारत में विकास को लेकर पहली बार जनता, सरकार, अधिकारी एकमत दिख रहे हैं। ७० वर्षों के बाद भी जब हम आप पीछे मुड़ कर देखते हैं तो पायेंगे कि ग्रामीण विकास को लेकर सदैव उदासीनता बरती गयी। योजनाएं थीं, धन आवंटित भी था फिर भी समाज में उस प्रकार का परिवर्तन नहीं दिख रहा था जैसी लोगों की अपेक्षा थी। ऐसा नहीं है कि विगत कई दशकों में विकास हुआ ही नहीं। सडक़ें बनीं, उद्योग लगे, स्वास्थ्य केंद्रों का निर्माण किया गया, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए गए, गरीबों के लिए सस्ते अनाज की व्यवस्था की गई, किसानों को सस्ते ऋण दिए गए, आपदा के समय ऋण माफी आदि अनेक सामाजिक व आर्थिक विकास के काम किए गए। लेकिन इन सबके बीच गांव की घोर उपेक्षा हुई। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के प्रभावों के चलते भारत में औद्योगीकरण की गति बढ़ी। भूमंडलीकरण ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया है। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे गुणात्मक विकास से लोगों में सकारात्मक विकास की एक नई सोच पनपी है। इस नये विचार प्रवाह के निर्माण में मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मीडिया की एजेंडा सेटिंग के परिणामस्वरूप जनमत के निर्माण में व्यापक परिवर्तन देखने को मिला। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र आज भी बौद्धिक जगत में चर्चा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय है। समाज में वैचारिक मंथन व चिंतन के विषय मीडिया के द्वारा प्रचारित और प्रसारित किए जाते हैं। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, गांव केन्द्रित विकास की सोच में कमियों को पाठकों के समक्ष लाने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, रक्षा-सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, विकास, गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, दहेज, आरक्षण, खेल, राजनीतिक उथल-पुथल, पर्यावरण आदि के अलावा गांव, खेत-खलिहान, ग्रामीण या शहरी महिलाओं का जीवन स्तर, कन्या भ्रूण हत्या, गरीबी के कारण आत्महत्या, अपराध, सांस्कृतिक और धार्मिक आदि सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता में मीडिया आज भी अग्रणी भूमिका निभा रही है। जल, जंगल, जमीन, खेत, खलिहान, तालाब, पोखरे, कुंए, नदियां, नहरें, सडक़ें, गलियां, शुद्ध पर्यावरण आदि सभी गांव की पहचान हैं। देश का पेट भरने वाला किसान स्वयं के भोजन, परिवार को पालने के लिए धन, पीने के लिए साफ पानी, रहने के लिए एक घर, पढऩे के लिए स्कूल, बीमार पडऩे पर डाक्टर की सुविधा तथा बिजली और सडक़ जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए आज भी जूझ रहा है। गांवों और शहरों के विकास में जमीन-आसमान का अंतर दिखाई पड़ रहा है। | Rural Development

 शहरों के विकास की नीति गांवों की गाढ़ी कमाई की कीमत पर की जा रही है। शहरों का पेट भरने के लिए सरकार किसानों से अनाज खरीदती है। हरित क्रांति के पहले भारत को अनाज विदेशों से आयात करना पड़ता था। अनाज उत्पादक और निर्यातक देशों का मुंह ताकना पड़ता था। उसकी कीमत भी अधिक देनी पड़ती थी। किसानों की कड़ी मेहनत से भारत अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया। आज भारत अनाज निर्यातक देश बन गया है। लेकिन, भारत में बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे आज भी दो समय की रोटी नहीं मिल रही है। देश की 20 प्रतिशत आबादी एक समय भूखे ही सो जाती है। जिनमें अधिकांश जनसंख्या ग्रामीणों की है। सरकारी भंडार गृहों में समुचित रख-रखाव के अभाव में अनाज सड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने यूपीए की केंद्र सरकार को कहा था कि अनाज को गरीबों में बांट दो। लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अनाज सड़ते रहे लोग भूख से मरते रहे। भूखों की सुध लेने वाला कोई नहीं था। आज भी गरीब आदमी भूखे सोने को मजबूर है। भारत के संविधान में सभी नागरिकों को मूल अधिकार दिये गये हैं। अनुच्छेद ‘21’ में नागरिकों को जीने का अधिकार भी इसमें शामिल है। किन्तु नागरिकों के इस अधिकार की अनदेखी की जा रही है, तथा हमारे संविधान के अनुच्छेद ‘47’ में राज्य का अपने नागरिकों के प्रति खाद्य तथा जीवन स्तर को उठाने और अन्य व्यवस्था का दायित्व निर्धारित किया गया है। मीडिया ने नागरिकों को खाद्य अधिकार दिलाने के लिए समय-समय पर आवाज उठायी है। रोटी, कपड़ा और मकान किसी भी व्यक्ति की तीन मूलभूत आवश्यकतायें है। अब विकास एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। और गांव के लोग भी अच्छी सडक़, स्कूल, अस्पताल, स्वच्छ पीने का पानी तथा रहने को घर के अलावा रोजगार की गारंटी चाहते हैं। भारत आज भी कृषि प्रधान देश है। जब-जब खाद्य सुरक्षा की चर्चा होगी कृषि पर हमारी निर्भरता को नकारा नहीं जा सकेगा। खाद्य सुरक्षा का अर्थ है खाद्यान्न उत्पादों में वृद्धि, किसानों की उपज की खरीद और उसके भंडारण की उचित व्यवस्था, किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य समय से देने की व्यवस्था, उपभोक्ताओं को सही दर पर अनाज उपलब्ध कराना। हरियाणा, पंजाब, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में वहां की आवश्यकता से अधिक अनाज का उत्पादन हो रहा है। इन राज्यों की उपज से ही अन्य राज्यों को अनाज उपलब्ध कराया जाता है। प0 बंगाल, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की उत्पादन दर को बढ़ाने के प्रयास करने होंगे। इसके लिए सिचाई के साधनों, खादों की उपलब्धता, उत्पादित अनाज का समर्थन मूल्य और बिचौलियों की मुनाफाखोरी से उनकी सुरक्षा प्रदान करना आज की आवश्यकता बन गई है। | Rural Development

आज देश में लाखो टन खाद्यान्न खुले आकाश में सडऩे और चूहों द्वारा चट कर जाने के लिए छोड़ दिये गए हैं। अनाज, फल और सब्जियां बर्बाद होने की चिंता किसी को नहीं है लेकिन उत्पादन बढ़ाने की चर्चा की जा रही है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी इंडेक्स द्वारा तैयार 2010 के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 81 देशों की सूची में 67वें स्थान पर है। पाकिस्तान, सूडान, और रवांडा जैसे गरीब देश भारत से बेहतर स्थिति में हैं। खाद्य सुरक्षा में कृषि पर निर्भरता एक अहम् वैचारणीय व समयागत प्रसांगिक विषय, केवल भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही नहीं बल्कि यह आज एक वैश्विक चिंतनीय विषय का रूप ले चूका है। विश्व की उत्तरोत्तर बढ़ती आबादी को खाद्य उपलब्धता की तथा इसकी सत्त बढ़ोत्तरी सदैव विद्यमान रहे, एक वैश्विक चूनौती का रूप ले चुका है। हमारे देश को आबादी के आधार पर चीन के बाद का दर्जा प्राप्त है लेकिन कुछ ही वर्ष के बाद विश्व के सबसे अधिक आबादी वाला देश का दर्जा प्राप्त होने को है। इस दौर को प्राप्त करने से पहले हमें अपने राष्ट्र के नागरिकों को दूसरी हरित क्रान्ति से भी एक कदम आगे की सोचनें की आवश्यकता है। अध्ययन का उद्देश्य भारत कृषि प्रधान देश है यह सर्वविदित है। भारत गांवों का देश है, हमको यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए। यह भी सत्य है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार कृषि, पशुपालन, तथा प्राकृतिक संसाधन आदि है। जबकि यह सब ग्रामीण धुरी पर केंद्रीत है तब उन गांवों की उपेक्षा कर उसके सारे संसाधनों से कमाई करके शहरों को बसाने या विकास करने में खर्च क्यों किया जा रहा है? क्या अपनी ही कमाई पर गांवों को विकास के लिए हाथ फैलाने की जरूरत पड़ेगी। लेकिन ऐसा हो रहा है। ठीक है शहरों का विकास होना चाहिए लेकिन गांवों की उपेक्षा करके नहीं। ग्रामीणों के सपनों को कुचल कर नहीं। शहरों और गांवों के बीच का अंतर जब तक समाप्त नहीं होगा भारत के विकसित होने की कल्पना करना खुली आंखों से सपने देखने जैसा ही होगा। ग्रामीण विकास की अनेकों चुनौतियां हैं जिन्हें दूर किया जाना आवश्यक है। पूर्वांचल के ग्रामीण विकास तथा शेष भारत के ग्रामीण विकास की चुनौतियां कमोबेश एक सी ही हैं। ग्रामीण विकास में मीडिया की भूमिका तथा उसके प्रभावों का अध्ययन करना ही उद्देश्य है। | Rural Development

शोध विधि

उपरोक्त
उद्देश्य की पूर्ति के लिए विश्लेषणात्मक तथा व्याख्यात्मक विधि का प्रयोग किया
गया। विभिन्न पुस्तकों, पत्रिकाओं,
समाचार पत्रों, समाचार चैनलों, सोशल मीडिया आदि पर पूर्वांचल के ग्रामीण
विकास को लेकर प्रकाशित खबरें, लेखों,
रिपोर्टों के
अलावा डाक्यूमेंट्री का सहारा लिया गया। इनकी समीक्षात्मक व्याख्या के लिए विद्वान
लेखकों के विचारों के आधार पर विषय को समझने का प्रयास किया गया है। ताकि संबंधित
विषय के साथ न्याय किया जा सके। | Rural Development

अध्ययन का महत्व

वैश्वीकरण के
प्रभावों के चलते तथा नित आधुनिक प्रौद्योगिकीयों के आने के कारण पत्रकारिता एक
उद्योग का रूप ले चुका है। बाजार में अपने उत्पाद को बेचने के लिए वो सारे तरीके
मीडिया उद्योग अपनाता जा रहा है जो कि अन्य वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादक करते
हैं। नि:संदेह मीडिया शहर केन्द्रित कार्यक्रमों, खबरों आदि को महत्व देती है। यह उसके बाजार
का हिस्सा व आधार हैं, यह एक प्रमुख कारण हो सकता है। बीच के कालखंड में इस मीडिया से गांव खो गए से
लगते थे, | Rural Development


लेकिन अब यह
अपने चेहरे को चमकाने तथा सरोकारों वाली पत्रकारिता को महत्व देने के कारण ग्रामीण
विकास से संबंधित खबरों को महत्व देने लगी है। लेकिन वह भी अपर्याप्त है। शहरों
जैसी व्यवस्था जब तक गांवों में नहीं पहुंचेगी तब तक देश के समावेशी विकास तथा
विकसित भारत की कल्पना करना संभव नहीं है। | Rural Development

निष्कर्ष

आज हमारे
राष्ट्र को कृषि उत्पादकता की वृद्धि के साथ-साथ मृदा की उर्वरता की संपूर्ण
संरक्षणता की आवश्कता को बरकरार रखते हुए, ऐसे शोधों की आवश्यकता है जिससे हमारी भूमि
की उर्वरा शक्ति सदैव बनी रहे व आने वाली पीढ़ी को अपनी प्राकृतिक अवस्था में
प्राप्त हो सके। अब समय आ गया है कि वैज्ञानिको को अपने खोजों को आधार रूप देने की
जरूरत है। विकीरणों को नियंत्रीत कर कृषि उत्पादकता में वृद्धि एक नयी क्रांति को
पैदा कर सकती है। मीडिया के माध्यम से आज किसान नयी-नयी तकनीक का प्रयोग करना व
अपने फसल पर किसी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए उपायों व सुक्षावों को आसानी से
प्राप्त कर रहा है। यह मीडिया के प्रयासों का ही प्रतिफल है। ग्रामीणों, किसानों, मजदूरों, गरीबों आदि के हितों की रक्षा के लिए केंद्र
तथा राज्य सरकारों ने तमाम कल्याणकारी योजनाओं को लागू किया है। वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, जीवन बीमा, फसल बीमा, भविष्य में दी जाने वाली सहायतार्थ राशि के
घोटालों को रोकने तथा सीधे जनता के खाते में पैसे की सुविधा के लिए बैंकों में
खाते खोले गए,
पेयजल सुविधा, शौचालय, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र आदि-आदि सुविधाएं प्रदान की
गयीं। लेकिन कृषि में हो रहे लगातार नुकसान तथा कर्ज में डूबे किसान और ग्रामीण
अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। गांव या उसके आस-पास रोजगार के साधन न होने के
कारण उसके सामने विकल्प नहीं है। स्वरोजगार के लिए धन नहीं है। कुल मिलाकर उसके
विकास के सभी रास्ते बंद होते दिख रहे हों तो वह हताशा में आत्महत्या करने को
मजबूर हो जाता है। राजनीतिक दलों के लिए किसान या ग्रामीण केवल वोट बैंक की तरह अब
तक देखे गए लेकिन मीडिया ने उनको इतना जागरूक कर दिया है कि वे अपने अधिकारों, ग्रामीण विकास तथा रोजगार आदि की बातें करने
लगे हैं। अब वोट जाति, धर्म,
पार्टी के आधार
पर न देकर विकास तथा उनके बच्चों व परिवार के भरण पोषण लायक रोजगार मुहैया कराने
की बात करने वालों को वोट करने पर भी विचार करने लगे हैं। इस जागरूकता के पीछे
मीडिया की एजेंडा सेटिंग का परिणाम स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। | Rural Development

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